सीमित परिवार का अर्थ, महत्व (लाभ) तथा उपाय या विधियां

सीमित परिवार का अर्थ तथा महत्व (लाभ)

 ‘सीमित परिवार’ का अर्थ

समाज की प्रथम इकाई ‘परिवार’ को नागरिकता की प्रथम पाठशाला भी कहा जाता है, क्योंकि मानव के व्यक्तित्व के विकास में परिवार ही प्रारंभिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। आजकल विश्व के लगभग सभी देशों में जनसंख्या बड़ी तेजी से साथ बढ़ रही है। भारत भी जनसंख्या में वृद्धि की गंभीर समस्या से ग्रस्त है। सीमित परिवार की अवधारणा को अपनाकर इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है। सीमित परिवार से आशय है ‘परिवार का छोटा होना’। ‘हम दो, हमारे दो’ का विचार या नारा सीमित परिवार की अवधारणा को ही व्यक्त करता है। इसमें संदेह नहीं की सीमित परिवार को ही एक आदर्श परिवार माना जा सकता है; क्योंकि छोटा परिवार ही सुख और संपन्निता का आधार होता है। पहले तीन बच्चों की बात सामने आई, परंतु उसके पश्चात दो बच्चों तक बात सीमित हो गई और अब बाद एक बच्चे की होने लगी है, चाहे वह लड़का हो या लड़की।

 सीमित परिवार का महत्व (लाभ)

आधुनिक युग में सीमित परिवार वरदान से कम नहीं है। इसकी आवश्यकता निम्न कारणों से है—

(1) सीमित परिवार में परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुकूल बच्चों का पालन–पोषण व शिक्षा–दीक्षा उचित प्रकार से संभव हो सकती है।

(2) सीमित परिवार में पले बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त करके देश के आदर्श नागरिक बन सकेंगे तथा समाज और देश की उन्नति में योगदान दे सकेंगे।

(3) सीमित परिवार से देश में व्याप्त भुखमरी, बेकरी और बीमारी जैसी भयानक बुराइयों का उन्मूलन भी हो सकेगा।

(4) सीमित परिवार से आवास की भयंकर समस्या भी हल हो सकेगी।

(5) परिवार में शांति और संपन्नता उत्पन्न होगी और परिवार समृद्धिशाली बनेगा।

(6) सीमित परिवार से देश का आर्थिक संकट दूर होगा, सामाजिक विषमता समाप्त होगी और लोगों का जीवन– स्तर ऊँचा उठेगा।

(7) सीमित परिवार द्वारा व्यक्ति को व्यक्तित्व के समुचित विकास के लिए अधिक अवसर प्राप्त होते हैं।

(8) शारीरिक स्वच्छता की दृष्टि से भी सीमित परिवार की अवधारणा को अपनाना उचित है।

(9) सीमित परिवार के द्वारा ही जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण पाना संभव है।

 सीमित परिवार की व्यवस्था हेतु विभिन्न उपाय या विधियाँ

      सीमित परिवार के लिए जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण करना परम आवश्यक है। इसके लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम को लागू करके परिवार को सीमित किया जा सकता है। इसी उद्देश्य से भारत सरकार ने देश में परिवार नियोजन अथवा परिवार कल्याण कार्यक्रम को लागू करने का पूर्ण प्रयास किया है। परंतु परिवार कल्याण को अधिक प्रभावी बनाने के लिए देश में अशिक्षा व अज्ञानता को दूर करना आवश्यक है। इसके लिए शिक्षा का आधिकाधिक प्रसार आवश्यक है। भाग्यवाद पर आधारित विचारधारा, निर्धनता तथा मनोरंजन के साधनों का अभाव भी परिवार कल्याण के कार्यक्रम में बाधक है। अतः इन सभी समस्याओं को दूर करके परिवार कल्याण कार्यक्रम को सरल बनाया जा सकता है। वस्तुत: परिवार कल्याण कार्यक्रम के आधार पर ही सीमित परिवारों का निर्माण हो सकता है, जो सुख-संभव और संपन्नता के आधार हैं। शारदा अधिनियम के अंतर्गत बालिकाओं और बालकों की विवाह योग्य न्यूनतम आयु क्रमशः 18 व 21 वर्ष निर्धारित की गई थी। परंतु आज के परिवेश में यह अनुभव किया जा रहा है कि विवाह की आयु बढ़ाकर लड़कों की 25 वर्ष और लड़कियों की 21 वर्ष कर दी जानी चाहिए। इसके अतिरिक्त सीमित परिवारों को करों में छूट प्रदान की जाए तथा गर्भनिरोधक दावाओं को रियायती मूल्य पर सरलता से उपलब्ध कराने की व्यवस्था की जाए। इस कार्य में स्वयंसेवी संस्थाएँ तथा स्कूल और कॉलेज के छात्र व छात्राएँ महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं, क्योंकि विभिन्न जन–जागृति शिविरों के माध्यम से ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाली महिलाओं में परिवार को सीमित रखने की चेतना जागृत की जा सकती है।

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