जनजातीय आंदोलनों का वर्गीकरण - letest education

 जनजातीय आंदोलनों का वर्गीकरण

उमाशंकर मिश्र एवं प्रभात कुमार तिवारी ने आदिवासी आंदोलन की विवेचना करते समय इस बात पर बल दिया है कि अधिकांश आंदोलन किसी एक लक्ष्य के लिए अथवा किसी एक कारण से नहीं हुए हैं। प्रत्येक आंदोलन की पृष्ठभूमि में जनजाति असंतोष एक सामान्य अवस्था होती है। यह असंतोष आंतरिक एवं बाह्य दोनों प्रकार के कार्यों का परिणाम होता है। साथ ही, सभी जनजातीय आंदोलन को एक ही दृष्टि से नहीं देखा जा सकता है। भारत में सभी जनजाति आंदोलन देश में विद्यमान विशिष्ट सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों के परिणाम रहे हैं। इन्होंने आदिवासी आंदोलन के कर्म को सामने रखकर इन्हें निम्नलिखित चार श्रेणियां में विभाजित किया है —

(1) मसीही आंदोलन

जनजातीयों में मसीही आंदोलन अधिकतमर जनजातीयों के बाहरी जगत से संपर्क के परिणाम स्वरुप उत्पन्न हुई मानसिक द्वंद्व एवं नैतिक पतन की परिस्थितियों का परिणाम हैं । जिनके द्वारा वह अपने परंपरागत जीवन के प्रति पुनः आकर्षित होते हैं तथा अपनी मान्यताओं एवं बाह्य सांस्कृतिक तत्वों में समन्वय द्वारा अपनी संस्कृति को बनाए रखने का प्रयास करते हैं। ऐसे आंदोलन का प्रमुख कारण सांस्कृतिक एवं आर्थिक असंतोष रहा है परंतु कुछ आंदोलन का सूत्रपात धार्मिक आधार पर भी हुआ है। इन आंदोलनों के नेताओं के प्रेरणा स्रोत ईसाई धर्म अथवा हिंदू धर्म में ही निहित थे। ऐसे नेता अपने आपको अलौकिक शक्ति से प्रभावित घोषित कर जनजाति कल्याण के लिए अवतार एवं मसीहा के रूप में अपने को प्रस्तुत करते थे इसलिए इन्हें मसीही आंदोलन कहा जाता है।

(2) आर्थिक शोषण से प्रेरित आंदोलन

अधिकांश जनजातियों में होने वाले आंदोलनों का कारण आदिवासियों का आर्थिक शोषण रहा है ‌। अंग्रेजी सरकार द्वारा नियुक्त एवं मान्यता प्राप्त जमींदार या मुत्तादार , जंगलों के ठेकेदार, साहूकार, भूमि के लालची हिंदू कृषक, छोटे सरकारी कर्मचारी आदिवासियों के शोषण का प्रमुख स्रोत रहे हैं। उनके शोषण के परिणाम स्वरुप कहीं-कहीं आदिवासियों की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय हो गई कि उनके सामने विद्रोह करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं बचा। आंध्र प्रदेश में 1802-03 ई के मध्य गोदावरी से पूर्व में बसने वाले आदिवासियों द्वारा राम भूपति के नेतृत्व में रंपा फितूरी नमक विद्रोह इस प्रकार के जनजाति आंदोलन का उदाहरण है। बिहार में मुंडा तथा संथाल जनजातियों में आंदोलन भी इसी प्रकार के आर्थिक शोषण का परिणाम रहे हैं।

(3) स्वतंत्रता आंदोलन

आदिवासी स्वभाव से स्वतंत्र प्रकृति के होते हैं तथा उन्हें कभी भी अपने जीवन में बाहरी लोगों का राजनीतिक हस्तक्षेप मान्य नहीं रहा है। उत्तर पूर्वी सीमांत प्रदेश के आदिवासियों में अंग्रेजी शासको के प्रति घृणा के परिणाम स्वरूप 1828 ईस्वी में प्रारंभ हुआ आंदोलन इसी प्रकार के राजनीतिक हस्तक्षेप का परिणाम रहा है। 1829 ई में खासी पहाड़ियों में अंग्रेजी प्रशासन के विरोध में विद्रोह हुआ। 1830 ईस्वी में पूरे असम में हुए आदिवासी आंदोलन का प्रारंभ ,विशेष रूप से खासी तथा गारो जनजातीय आंदोलन का प्रारंभ, बाहरी हस्तक्षेप का ही परिणाम है।

(4) विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन 

कुछ आदिवासी क्षेत्रों में विशुद्ध राजनीतिक आंदोलन भी हुए हैं जिन्हें नक्सलवाड़ी आंदोलन भी कहा जाता है। इन आंदोलनों का नेतृत्व विशुद्ध राजनीतिक उद्देश्यों से प्रेरित कुछ बाहरी तत्वों के हाथों में रहा है जिन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र आदिवासी क्षेत्र को बना दिया तथा सीधे-साधे आदिवासियों को बड़े कृषकों एवं जमीदारों के विरुद्ध भड़काकर आंदोलन के लिए उकसाया। 1968 से 70 ई के मध्य चारु मजूमदार तथा कानू सान्याल के नेतृत्व में दार्जिलिंग के नक्सलबाड़ी स्थान पर हुआ जनजाति आंदोलन इस प्रकार के आंदोलन का उदाहरण है।

        बी०के० राय बर्मन के अनुसार जनजातियों में आंदोलन का प्रारंभ अंग्रेजी साम्राज्य की स्थापना एवं जनजातीय क्षेत्र में ईसाई मशीनरींयों के प्रवेश के बाद हुआ। इन आंदोलनों की भिन्न-भिन्न पृष्ठभूमि रही है तथा इनके कारण भी एक जैसे नहीं है। इन्होंने जनजाति आंदोलन की पृष्ठभूमि के आधार पर इन्हें निम्नलिखित आठ श्रेणियां में विभाजित किया है—

        (1) प्राकृतिक आवाज की गोपनीयता भंग होने के डर से उपजे आंदोलन।

        (2) प्राकृतिक साधनों पर जनजातियों का अपना नियंत्रण समाप्त होने के भय से उपजे आंदोलन।

        (3) संपूर्ण सामाजिक अंतर्क्रिया के ढांचे में जनजातियों की परंपरागत प्रस्थिति वह भूमिका को ठेस पहुंचाने के डर से उत्पन्न आंदोलन ‌

        (4) अपनी समाज तथा सरकार के बीच संबंधों के नए अर्थ को ढूंढने से संबंधित आंदोलन।

        (5) व्यक्ति तथा समाज के बीच संबंधों के नए अर्थ को ढूंढने से संबंधित आंदोलन।

        (6) अपने समाज या समुदाय की अलग पहचान बनाए रखने के प्रयासों से संबंधित आंदोलन।

        (7) अपने क्षेत्र के साधनों पर अपने समुदाय के नियंत्रण को बनाए रखने से संबंधित आंदोलन।

        (8) प्रत्येक स्तर पर अपने समुदाय के लिए आधिकाधिक सत्ता (जिसमें राजनीतिक सत्ता भी सम्मिलित है) या स्वायत्तता प्राप्त करने से संबंधित आंदोलन।

आधुनिक समय में भारत में अनेक जनजाति आंदोलन की पृष्ठभूमि अपने समुदाय के लिए अधिकाधिक स्वायत्तता प्राप्ति से ही संबंधित है।

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