नातेदारी क्या है? अर्थ, परिभाषा एवं प्रकार

नातेदारी 

सभी समाजों में नातेदारी एवं विवाह सामाजिक जीवन की आधारभूत स्तंभ है। प्रत्येक समाज में सदस्य विभिन्न प्रकार के संबंधों द्वारा अनेक समूह के रूप में परस्पर बंधे रहते हैं। इन संबंधों को “नातेदारी व्यवस्था” (बंधुत्व प्रथा या स्वजनता प्रथा) कहा जाता है, जो प्रजनन पर आधारित होते हैं और बहुत ही सार्वभौमिक और मौलिक होते हैं।

नातेदारी का अर्थ एवं परिभाषाएं 

नातेदारी व्यवस्था वह प्रणाली है जिसमें प्रजनन और वास्तविक वंशावली के आधार पर व्यक्तियों के परस्पर संबंधों का निर्माण होता है, जो विवाह या रक्त संबंधों के आधार पर जुड़े होते हैं।विनिक ने मानव शास्त्रीय शब्दकोश में नातेदारी व्यवस्था को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “नातेदारी व्यवस्था में समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हुए संबंध उन संबंधों को दर्शाते हैं जो आमतौर पर अनुमानित या रक्त संबंधों पर आधारित होते हैं।”

एस० एल० शर्मा ने इरावती कर्वे की पुस्तक Kinship organisation in India के हिंदी अनुवाद के पुनरीक्षक के रूप में बंधुत्व व्यवस्था के दो पक्ष बताए हैं— (1) आंतरिक पक्ष तथा (2) बाह्य पक्ष। रक्त संबंधों की व्यवस्था नातेदारी का आंतरिक पक्ष है, जबकि विवाह संबंधों की व्यवस्था इसका बाह्य पक्ष है। 

नातेदारी की प्रमुख परिभाषाएं

(1) रॉबिंस फॉक्स के अनुसार, “नातेदारी का सामान्य अर्थ होता है कि यह केवल उन व्यक्तियों के बीच संबंध होता है जो संबंधित होते हैं वास्तविक, ख्यात या कल्पित परिवार सदस्यों के रूप में।”

(2) एस० सी० दुबे के अनुसार, “मानव समाज में जनमत का विवाह के आधार पर परिवारों के सदस्य संबंध और व्यवहार की दृष्टि से एक दूसरे की बहुत समीप आ जाते हैं। इस प्रक्रिया के कारण कुछ प्रकार के सामाजिक संबंधों की सृष्टि होती है। इस विशिष्ट, सुव्यवस्थित संबंध श्रृंखला को नियोजित करने वाली प्रथम को हम नातेदारी कहते हैं।”

इन सभी परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि नातेदारी व्यवस्था से अभिप्राय नातेदारी संबंधों (दोनों रक्त एवं विवाह संबंधों) द्वारा बंधे व्यक्तियों की व्यवस्था से है। परिवार, वंश, कुल, गोत्र आदि ऐसे समूह के कुछ उदाहरण है। इस संदर्भ में रैडक्लिफ- ब्राउन ने लिखा है कि, “नातेदारी सामाजिक उद्देश्यों के लिए स्वीकृत वंश संबंध है जो की सामाजिक संबंधों के परंपरागत संबंधों का आधार है।” 

नातेदारी के प्रकार अथवा भेद

नितेदारी के दो रूप होते हैं —

(1) रक्त मूलक अथवा समरक्तीय नातेदार 

 रक्त संबंधों पर आधारित नातेदारों को रक्त मूलक नातेदार कहा जाता है। इसमें सामान रक्त (सपिण्ड) के आधार पर एक दूसरे से संबंधित व्यक्ति सम्मिलित होते हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता का बच्चों से संबंध तथा बच्चों का परस्पर संबंध (जैसे- भाई बहन संबंध) इस प्रकार के नातेदारों के प्रमुख उदाहरण हैं।‌ समान माता-पिता के बच्चों को ‘सदोहर’ कहा जाता है। इस संदर्भ में ही होता था अभी ध्यान देने योग्य है कि कई बार रक्त संबंधी नातेदार वास्तविक न होकर काल्पनिक भी हो सकते हैं।

(2) विवाह मूलक नातेदार 

इसमें उन नातेदारों को सम्मिलित किया जाता है जो सामाजिक अथवा कानूनी दृष्टि से विवाह संबंधों द्वारा परस्पर संबंध होते हैं। उदाहरण के लिए, पति-पत्नी विवाह मूलक नातेदार है। पति-पत्नी और पत्नी के परिवार के अन्य सदस्य भी परस्पर विवाह संबंधित ही है; जैसे— सास, ससुर, ननद, भाभी, जीजा, साला, साली इत्यादि। वस्तुत: विवाह के पश्चात दोनों परिवारों के सदस्य अनेक रूपों में एक दूसरे से संबंद्ध हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, विवाह के उपरांत एक व्यक्ति पति तो बनता ही है इसके साथ ही वह बहनोई, दामाद, जीजा, फूफा, नंदोई, मौसी, साडु़ भाई आदि भी बन जाता है। विवाह मूलक नातेदारों में प्रत्येक संबंध दो व्यक्तियों के आधार पर बनता है; जैसे— देवर-भाभी, साली-जीजा, साला-बहनोई, सास-दामाद, पति-पत्नी, सास-बहू आदि। इन सभी संबंधियों का आधार विवाह ही होता है।

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