मुगल काल की मनसबदारी प्रथा एवं दोष | अकबर का सैनिक प्रबंध

मुगल काल से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को स्पष्ट करेंगे जैसे- 

1. अकबर का सैनिक प्रबंध 

2. मनसबदारी प्रथा क्या है?

3. मनसबदारों का वर्गीकरण

4. मनसबदारी प्रथा की कुछ खास बातें

5. मनसबदारी प्रथा के दोष

6. मनसबदारी का अर्थ 

7. मुगल काल के मनसबदारी प्रथा का संक्षिप्त वर्णन

       अकबर का सैनिक प्रबंध 

सेना का विभाजन — अकबर ने अपनी सेना को चार भागों में विभाजित किया था। इन चार सैन्य भागों के नाम — (1) अहदी सेना (2) दख़िली सेना (3) स्थायी सेना तथा (4) मनसबदारी सेना थे।

(1) अहदी सेना (ahdi army)

अहदी सेना सम्राट की अंगरक्षक सेना थी। इसकी सैनिकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी। इस सेना का अपना एक अलग विभाग था। प्रत्येक व्यक्ति, जो इस सेना का सदस्य था, अपना घोड़ा स्वयं आता था और उसको सम्राट की ओर से नगद वेतन मिलता था। यह सेना किसी भी बाह्य विभाग से नियंत्रित नहीं थी।

(2) दखिली सेना (entry force)

दखिली सेना, राज्य सरकार की ओर से भर्ती किए जाने वाले सैनिकों को दखिली सैनिक कहते थे। और इन सेनाओं के लिए वेतन राज्य द्वारा ही दिया जाता था।

(3) स्थायी सेना (standing army)

अकबर के समय में साम्राज्य की रक्षा के लिए एक स्थायी सेना की व्यवस्था होती थी। इस सेना में 5 विभाग होते थे— 

1. अश्वारोही घोड़ो पर सवार होकर लड़ने वाले सैनिक।

2. गज सेना हाथियों पर सवार होकर युद्ध करने वाले सैनिक दल सेना में थे।

3. पैदल सेना पैदल ही बंदूक, तलवार और तीर कमान से लड़ने वाले सैनिक।

4.‌ तोपखाना मीर- आतिश नामक पदाधिकारी की देखरेख में तोपों से लड़ने वाली सेना। 

5. जल सेना अमीर -उल - बहर नामक अधिकारी की देख- रेख में जल में लड़ने वाले जल सेना थी, परंतु यह सही अर्थों में नौसेना नहीं थी। 

मुगल काल की मनसबदारी प्रथा एवं दोष | अकबर का सैनिक प्रबंध

(4) मनसबदारी सेना तथा मनसब का अर्थ

मनसबदारी का अर्थ; मनसब का अर्थ दर्जा अथवा पद से लिया जाता है। सम्राट की सेना में भर्ती होने वाले व्यक्तियों को सम्राट की ओर से पद प्रदान किया जाता था। इस पद को प्राप्त करने वाले सैनिकों को ही मनसबदार कहा जाता था। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मनसब एक पद का नाम था, जो सम्राट द्वारा सैनिक को उसकी योग्यता के अनुसार प्रदान किया जाता था, और इस पद का जो सैनिक प्राप्त कर्ता था उसे ‘मनसबदार’ कहलाता था। मुगल सेना का इतिहास मुख्यत: मनसबदारी प्रथा का ही इतिहास  से संबंधित है। इरविन के अनुसार, - “मनसब शब्द का आशय इससे अधिक और कुछ नहीं था कि मनसब धारण करने वाला अर्थात मनसबदार राज्य का नौकर था।” 

मनसबदारों का वर्गीकरण 

मनसबदारों का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जाता है, प्रथम वर्ग साधारण या सामान्य श्रेणी के आधार पर और द्वितीय वर्ग जात तथा सवार के आधार पर श्रेणियां। इन दोनों प्रकार की श्रेणियों का वर्णन कुछ इस प्रकार है— 

(1) सामान्य श्रेणियां

मनसबदारों कि सामान्य श्रेणी या उनके सैनिकों की संख्या के आधार पर निर्धारित की जाती थी। निम्नतम सामान्य श्रेणी का मनसब 10 सैनिकों का और उच्चतम मनसबदार 12,000 सैनिकों तक था। सामान्य रूप से मनसबदारी की श्रेणियां निम्न प्रकार थी—

1. उमराह मनसबदार— एक हजार या  उसके ऊपर सैनिक रखने वाला मनसबदार (मनसब पद पर आसीन व्यक्ति) उमराह मनसबदार कहलाता था।

2. साधारण मनसबदार— एक हजार से कम सैनिक जिस मनसबदार अधिकारी के पास होते थे। उसको साधारण मनसबदार की श्रेणी में गिना जाता था, अर्थात साधारण मनसबदार कहलाता था।

3. हाजिरे- रिकाब— दरबार में हाजिर रहने वाले मनसबदार को हाजिरी -रिकाब कहते थे। 

4. तैनातियां— सरकारी कार्यों को संपन्न करने के लिए जिन -जिन मनसबदारों की नियुक्ति की जाती थी, वे तैनातिया कहलाते थे। सामान्य रूप से यह मनसबदार प्रांतीय सरकारों के साथ नियुक्त किये जाते थे। 

(2) जात तथा सवार के आधार पर श्रेणियां

जात अथवा सवार इन दोनों का अर्थ समझ लेना भी श्रेयस्कर होगा। विभिन्न विद्वानों ने इन शब्दों की व्याख्या भिन्न भिन्न प्रकार से की है, किंतु इस संबंध में एक महान विद्वान ए० के० राव की परिभाषा अत्यंत ही स्पष्ट है। उनका कहना है, “पैदल सेना को जात और घुड़सवार सेना को सवार कहते हैं अर्थात जात बिना घोड़े पैदल सैनिक और सवार का अर्थ है घोड़ा सवार सैनिक।” जाति तथा सवार के आधार पर 5000 से ऊपर के मन शब्दों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से तीन श्रेणियों में किया गया था— 

1. प्रथम श्रेणी— जिन मनसरदारों की सेना में जाति या पैदल सैनिकों की संख्या सोमवार या घुड़सवार ओं की संख्या के बराबर या अधिक होती थी उनको प्रथम श्रेणी के मन सरदारों में गिना जाता था।

2. द्वितीय श्रेणी— यदि सवार (घुड़सवार) पद की संख्या जात (पैदल) पद से कम तो हो, परंतु आधे से कम ना हो तो उस मनसबदार की गणना द्वितीय श्रेणी में की जाती थी। 

3. तृतीय श्रेणी— यदि किसी मनसबदार के पास सवारों (घुड़सवारों) की संख्या बिल्कुल ना हो या जात (पैदल) के आधे से कम हो तो उसको तृतीय श्रेणी में गिना जाता था। 

मनसबदारी प्रथा की कुछ खास बातें 

(1) मनसबदारी का अपना एक अलग विभाग था। यह विभाग सम्राट की इच्छा अनुसार मन सरदारों की नियुक्ति, पदोन्नति तथा पदच्युत कर सकता था। 

(2) यदि जब कभी राजा को मनसबदार की आवश्यकता पड़ती तो मनसबदार को सम्राट के समक्ष में उपस्थित होना ही पड़ता था।

(3) मनसबदारी प्रथा में पद सोपान क्रम नहीं था, व्यक्ति की योगिता परख कर एकदम किसी व्यक्ति को सर्वोच्च मनसब का पद भी दिया जा सकता था। 

(4) जब मनसबदार की मृत्यु हो जाती थी तो उसकी सारी संपत्ति  पर राज्य का अधिकार हो जाता था। जिस नियम के तहत मनसबदार की संपत्ति राज्य की हो जाती थी उसे अपहरण नियम कहते थे।

(5) मनसबदारी का पद वंशानुगत नहीं था उनकी पदोन्नति उनकी योग्यता के अनुसार और उनकी नियुक्ति, पदोन्नति एवं पद से हटाया जाना सभी कुछ बादशाह की इच्छा पर थे।

मनसबदारी प्रथा के दोष 

(1) मनसबदार - सेनापति, घोड़ों की निश्चित संख्या नहीं रखते थे। जब कभी सम्राट निरीक्षण करता था, तो घटिया घोड़े दिखा दिये जाते थे।

(2) मनसबदार सम्राट के स्वामी भक्त भी नहीं थे।

(3) अपहरण नियम के तहत मनसबदार (अधिकारी) मनमाना या मनचाहे ढंग खर्च करते थे।

(4) सेना में अनुशासनहीनता थी।

(5) सैनिकों को वेतन उनके मनसबदार द्वारा दिया जाता था,  इसलिए उनकी स्वामी भक्ति राज्य के प्रति ना होकर अपने-अपने मन- सबदारों के प्रति होती थी। 

समीक्षा — इस प्रकार जो दोष जागीरदारी प्रथा में था, वही मनसबदारी प्रथा में भी रहा। मनसबदारी में पारस्परिक द्वेष था जिससे सेना के संगठन और शक्ति को आघात मानता था। परंतु इतने सब दोस्तों के बाद भी मनसबदारी प्रथम मुगल सैनी व्यवस्था की कमियों को दूर करने का एक अच्छा प्रयास था।

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